करीब एक दशक पहले जुल्म की इंतहा होने पर करीब 147 हिंदू परिवारों ने पाकिस्तान छोड़कर दिल्ली में आशियाना बनाया। मजनू का टीला स्थित इनकी बस्ती में इस बीच करीब 100 नौनिहालों की किलकारियां भी गूंजीं। इनमें से कई आज 8-10 साल के हो गए हैं, लेकिन इनको यह तक नहीं पता कि वह निवासी किस देश के हैं।
नागरिकता नहीं मिलने से वह भारत को अपनी जन्मभूमि नहीं कह सकते। और पाकिस्तान का उनको कुछ पता नहीं। आस इनको अभी भी भारत से है। सवाल करने पर बस्ती के प्रधान दयाल दास सर्द आवाज उभरी, संकट बच्चियों की आबरू, परिवार की जिंदगी पर था, तो रोते-बिलखते अपना वतन छोड़ दिया। 2011 में दिल्ली आ गए। जीवन तो बच गया, लेकिन जिंदगी का अंधियारा अब तक दूर नहीं हो सका है।
हमें तो खैर यह सब पता है, लेकिन जो बच्चे भारत आने के बाद पैदा हुए, वह तो अभी तक कहीं के नागरिक भी नहीं हो सके हैं। हम तो 50 साल के हो गए हैं, जितना समय बचा है, वह भी किसी तरह कट जाएगा, छोटे-छोटे बच्चों की पूरी जिंदगी में तो हर तरह अंधेरा ही अंधेरा है। भारत से नागरिकता मिल जाती तो उनका कम से कम स्थायी ठिकाना तो हो जाता।
दरअसल, पाकिस्तान के दहशत भरे माहौल से ऊबकर कई हिंदू परिवारों ने अपना घर-बार छोड़ दिया था। इनमें से करीब 147 परिवार दिल्ली के मजनू का टीला पर आकर बस गए हैं। उम्मीदों के साथ भारत आए इन परिवारों को एक दशक बीत गया है, लेकिन दुश्वारियां यहां भी पीछा नहीं छोड़ रही हैं।
बच्चे, युवाओं व महिलाओं का भविष्य अंधकारमय
अपने वतन से उजड़े परिवारों को भारत से नागरिकता हासिल नहीं हो सकी है। ऐसे में उनके बच्चे, युवाओं व महिलाओं को भविष्य अंधकारमय नजर आ रहा है। इस बस्ती में कई ऐसे छात्र हैं, जिनने किसी तरह 10वीं व 12वीं तक की पढ़ाई की, लेकिन दस्तावेज न होने से आगे की पढ़ाई छोड़नी पड़ी है। स्कूली शिक्षा पूरी होने के बाद वह कहां जाएंगे उन्हें नहीं पता।
12वीं के छात्र बलराम ने कहा कि उनका सपना सिविल सेवा में जाने का है, पर नागरिकता न होने से कुछ भी कर पाना असंभव है। कच्ची संकरी गलियां, उबड़-खाबड़ रास्ते, बेतरतीब तरीके से बनी झुग्गियां, खुले में फैले कूड़े ढेर व बहता गंदा पानी… दू शरणार्थी बस्ती का यही नजारा है। 700 के करीब हिंदू शरणार्थी बिना लाइट व पानी के रह रहे हैं।
ऐसे में शरणार्थियों का आंगन सुनहरे भविष्य की राह ताक रहा है। सुविधाओं के अभावों में कई वर्ष से रह रहे शरणार्थियों में भारतीय नागरिकता मिलने की उम्मीद की किरण आज भी साफ देखने को मिलती है।
बयां किया दर्द
पाकिस्तान के सिंध प्रांत से आई मीरा देवी अपना दर्द बयां करते हुए कहती हैं कि वहां उनका सब कुछ था, लेकिन महिलाओं को जीने की आजादी नहीं थी। वहां महिलाओं का घर से निकलना भी मुश्किल होता था। यहां आकर नया जीवन तो मिला, लेकिन अभावों में जिंदगी बीत रही है। जबकि बात करने पर आरती हकीकत में रोने लगीं। सुबकते हुए वह बताती हैं कि पाकिस्तान में हमारा बुरा हाल था। यहां आकर महफूज तो हो गए, लेकिन आगे के लिए कुछ भी तय नहीं है। काॅलोनी में सड़क, बिजली, पानी जैसी सुविधाएं तक नहीं हैं।