कुछ साल पहले खबर आई थी कि वैज्ञानिकों ने कृत्रिम गर्भाशय बना लिया है। अब एक कंपनी द्वारा दावा किया जा रहा है कि माता-पिता के ओवम-स्पर्म से बच्चे मशीन के जरिये पैदा होंगे।
मां की विशेषज्ञता के तौर पर हमारे समाज में जो बातें कही जाती हैं, उनमें से एक यह है कि मां खुद गीले में सो जाएगी, मगर बच्चे को गीले में नहीं सोने देगी। इसका अर्थ बच्चे द्वारा बिस्तर के जब–तब गीले होने से हैं। मगर अब डाइपर्स और अलग सुलाने की व्यवस्था ने मां को गीले में सोने से मुक्ति दिला दी है। मां गर्भवस्था में जो कुछ खाएगी, उसका असर सीधे बच्चे के स्वास्थ्य पर पड़ेगा। जैसा सोचेगी, बच्चा वैसा ही बनेगा। इनमें से बहुत-सी बातों को विभिन्न शोधों के आधार पर सिद्ध भी किया जा चुका है।
गर्भ धारण करने से लेकर बच्चे के जन्म तक ये बातें सुनते ही आए हैं कि मां बच्चे के जन्म के लिए कितने पापड़ बेलती है। नौ महीने उसे गर्भ में रखती है। उस दौरान तमाम तरह की आफतों से दो-चार होती है। बच्चे का स्वास्थ्य कैसा होगा, इसके लिए चिंतित रहती है। फिर प्रसव पीड़ा से गुजरती है। हालांकि पश्चिमी देशों में दशकों से इस बात का विकल्प दिया जाता है कि माताएं प्रसव पीड़ा झेलना चाहती हैं कि नहीं। कई माताएं जान–बूझकर पीड़ा को झेलती हैं। उनका कहना है कि जितनी अधिक पीड़ा, उतना ही बच्चे का अधिक महत्व। लेकिन किराये की कोख लेने पर तो अब प्रसव पीड़ा भी नहीं झेलनी पड़ती है।
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कुछ साल पहले खबर आई थी कि वैज्ञानिकों ने कृत्रिम गर्भाशय बना लिया है। अब एक कंपनी द्वारा दावा किया जा रहा है कि माता-पिता के ओवम-स्पर्म से बच्चे मशीन के जरिये पैदा होंगे। बच्चे को जन्म देने के लिए मां को उसे नौ महीने अपने गर्भ में नहीं रखना पड़ेगा। इस तरह की तकनीक में माता-पिता अपने बच्चों में किसी वंशानुगत बीमारी के जीन को हटवा भी सकेंगे। बच्चे का रंग कैसा हो, लंबाई क्या हो, आंखों का रंग कैसा हो, आदि का चुनाव कर सकेंगे। वे समय-समय पर अपने बच्चे के विकास को भी देख सकेंगे। अब तक ये बातें सिर्फ साइंस फिक्शन और फिल्मों का विषय ही हो सकती थीं, लेकिन अगर अब ये बातें जीवन का हिस्सा बनेंगी, तो क्या होगा? कितना डर लगेगा? कैसे होगा? बच्चे को मां के गर्भ में जो भावनात्मक सहारा मिलता है, क्या कृत्रिम गर्भाशय से वह सहारा मिल सकेगा। क्या मशीन की कोख वैसी ही होगी, जैसी मां की कोख।
हालांकि अभी बच्चे का इस तरह से जन्म कुछ दूर की बातें हैं, लेकिन जिन चीजों के बारे में बातें होने लगती हैं, वे कभी न कभी होती ही हैं। आज से सौ साल पहले कौन सोच सकता था कि आईवीएफ जैसी कोई तकनीक होगी, जहां भ्रूण का विकास करने के बाद उसे मां के गर्भाशय में इंजेक्ट कर दिया जाएगा। या कि अपने बच्चे के जन्म के लिए किसी और स्त्री की कोख किराये पर ली जा सकेगी, जिसे सरोगेसी कहा जाएगा। हालांकि अपने यहां कोलकाता के डाक्टर सुभाष मुखोपाध्याय ने आईवीएफ तकनीक के बारे में सत्तर के दशक में पश्चिम से पहले ही सोच लिया था। लेकिन लोगों ने उन्हें इतना परेशान किया कि अंततः उन्हें आत्महत्या करनी पड़ी। उन पर एक फिल्म भी बनी है।
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मां की जिस महत्ता को लगातार गाया–बजाया जाता है, क्या वे सब बातें गायब हो जाएंगी? क्या स्त्री विमर्श की वह धारा, जो कोख को अपना सबसे बड़ा शत्रु मानती है, इससे खुश होगी? या कि आम महिलाएं इस बात से परेशान होंगी कि जिस मातृत्व के कारण कहा जाता था कि मां दुनिया में सबसे बड़ी होती है, क्योंकि वह बच्चे को इस दुनिया में लाती है, जबकि पिता यदि चाहे भी तो ऐसा नहीं कर सकता, उनकी यह ताकत विज्ञान उनसे छीन ले रहा है। हालांकि जो कंपनी इस तकनीक से बच्चे पैदा करने की बात कर रही है, उसका कहना है कि जिन महिलाओं के गर्भाशय में कोई समस्या है, या कि वे कैंसर से पीड़ित हैं, या कि कोई और समस्या है, वे इस तकनीक का उपयोग करके मां बन सकेंगी। जाहिर है, इस सुविधा का लाभ वही लोग उठा सकते हैं, जिनके पास अनाप-शनाप पैसा है। जो कृत्रिम गर्भाशय के जरिये बच्चे को जन्म दिला सकते हैं। हालांकि अभी तक ऐसा किया नहीं गया है।