मन में नहीं उमड़ते-घुमड़ते सम्वेदना के बादल : फिर आखों में पानी आए कहाँ से

*तीसरी आंख*

*मन में नहीं उमड़ते-घुमड़ते सम्वेदना के बादल : फिर आखों में पानी आए कहाँ से?*

*उत्सवों, विदाई-समारोहों, बाबाओं के प्रवचनों, तीज महोत्सवों, गरबा डांसों की तो रहती है भरमार*

*ठुमकों पर बरसता हैं रुपैय्या और दारू की बोतलों का रहता है जलबा*

मिर्जापुर। हाहाकार मचाती गंगा चीख-चित्कार पर द्रवित हुईं तो तेजी से घटने लगीं और चार दिनों में शनिवार, 3 सितंबर को 6 मीटर (20 फीट) नीचे चली आईं, बावजूद इसके अभी बद-इंतजमी से मुक्ति मिलना तो दूर बढोत्तरी ही होती जा रही है।

*मिट्टी, बालू और कीचड़ से घर-आंगन पटे हैं*

घटती गंगा ने समस्या कम नहीं बल्कि बढ़ा दी हैं। खतरे के बिंदु से 39 सेमी ऊपर तक गंगा के पहुंचने के वक्त गांव के गांव तो घिरे ही, साथ ही बहुतों के चौखट-ड्योढ़ी और घर-आंगन तक गंगा पहुंच गई थीं। अब जबकि गंगा घटी हैं तो अपनी निशानी बालू, मिट्टी और कूड़ा-करकट छोड़ गई हैं जिसे हटाना कम कठिन काम नहीं है। चिकनी मिट्टी तो इतनी जबर्दस्त है कि पैर धंस जा रहा है तो निकलना मुश्किल हो जा रहा है। जरा चूके तो फिसल कर औंधे मुंह गिरे।

*गांवों की गलियों में*

घर के अलावा गांवों की सड़कों-गलियों में यही स्थिति है। अब इसे कौन हटाए? सब एक-दूसरे का मुंह देख रहे हैं।

*स्वच्छता अभियान शायद बाढ़ में बहकर चला गया बंगाल की खाड़ी में!*

राष्ट्रीय पर्वों तथा अन्य अवसरों पर समारोह पूर्वक मनाया जाने वाला स्वच्छता अभियान बह गया है। यह अभियान भी लौटने की शर्त रखकर गया है कि जब बड़े बड़े ओहदेदार झाड़ू-फरसा और फोटो कैमरा लेकर आएंगे तो वह भी आकाश मार्ग से तत्क्षण लौट आएगा।

*नगर के घाट : मिट्टी-बालू के ठाठ*

यही स्थिति नगर के घाटों की है। 4 सितंबर को राधा-जयंती, 6 सितंबर को एकादशी तिथि, 7 को वामन-जयंती (भगवान विष्णु इसी दिन प्रकट होकर धरती-आकाश नापे थे), 10 सितंबर को पूर्णिमा तिथि और पितृ-पक्ष के प्रारंभ की तिथि है। इस दिन से 25 सितंबर तक पितरों को तर्पण के लिए गंगा-स्नान शुरू होगा। ये सभी पर्व स्नान पर्व हैं, पर लगता है कि पर्व मनाने वालों को इम्तहान हर दिन देना है कि वे कितने बड़े भक्त हैं जो भगवान उन्हें सही सलामत नहलवा दे रहा है।

*उत्सवों की बाढ़ को आशीर्वाद मिला है कि वह थमने को कौन कहे, बढ़ती ही जा रही है*

किसी नामी गिरामी का सम्मान, उत्सव और जश्न कहीं से कम होने का नाम नहीं ले रहा है। कुछ ही दिनों में गरबा-डांस शुरू हो जाएगा। समाजसेवा का ताज पहनकर घूमने वाले पंजीकृत लोग इन नाँच-गानों में बड़े जज (निर्णायक मंडल) बन कर जम कर नाँच देखेंगे। अभी तीज-महोत्सवों में उलझे थे। उसकी खुमारी अभी उतरी नहीं है।

*बाढ़-पीड़ितों के उतरे-लटके, मुरझाए चेहरों को देखने में शायद मन में खटास न आ जाए?*

इन्हें देखने की जिम्मेदारी सरकार की होती है, कहकर पल्लू झाड़ रहे हैं जिम्म्मेदार लोग। इन्हें देखने से मन खराब होगा, यह सोच कोई पहल भी नहीं कर रहा।

*पिसाने हाथ भंडारी*

कहीं सरकारी मदद पहुंच रही है तो हाथ लागाकर ‘पिसाने हाथ भंडारी’ बनने के अवसरों से नहीं चूक रहे प्रभावशाली लोग। बहरहाल मदद जुबानी चल रही है। ढपोरशँख की तरह जो कहता है ‘बदामि, ददामि न’।

*सलिल पांडेय, मिर्जापुर।*