#दिव्य ज्योति वेद मंदिर के वेदज्ञों ने किया ‘दिव्य रूद्रिपाठ’ का गायन संस्थान द्वारा दी गई गणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभकामनाएं#

देहरादून। प्रत्येक सप्ताह की भांति आज भी दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान के द्वारा अपने निरंजनपुर स्थित आश्रम सभागार में भव्य रविवारीय साप्ताहिक सत्संग-प्रवचनों तथा मधुर भजन-संर्कीतन का आयोजन किया गया। सदैव की भांति आज के कार्यक्रम का शुभारम्भ भी संस्थान के संगीतज्ञों द्वारा प्रस्तुत मधुर भजनों की श्रंखला से किया गया। सर्वप्रथम गणेश चतुर्थी के पावन कार्यक्रम के अर्न्तगत श्री गणेश महिमा के महिमामयी भजन- ऊँ गणपते नमः……. का गायन किया गया और अन्य अनेक सुन्दरतम भजनों की श्रंखला को संस्थान के संगीतज्ञों ने प्रस्तुत किया।
भजनों में निहित गूढ़ आध्यात्मिक तथ्यों की सटीक व्याख्या करते हुए मंच का संचालन साध्वी विदुषी अनीता भारती जी द्वारा किया गया। उन्होंने बताया कि आज मनुष्य ईश्वर के दरबार में आकर सर नवाता है, प्रभु की जय बोलता है, तन-मन-धन के साथ प्रभु को जब अपना मन अर्पित करता है तो इसके लिए महापुरूष कहते हैं कि जो मन प्रभु चरणों में अर्पित होता है क्या वह परम पवित्र और विकारों से सर्वथा मुक्त मन है, या फिर वह अनन्त वासनाओं को अपने भीतर संजोए हुए होता है? सुमन अर्थत सुन्दर पुष्प रूपी मन मनुष्य के प्रतीकात्मक रूप में प्रयोग होता है। यह आवश्यक है कि बिना किसी स्वार्थ और कामना के प्रभु के श्री चरणों में अपना निर्विकार सुन्दर मन अर्पित किया जाए, तभी प्रभु प्रसन्न होकर एैसे भक्त को अंगीकार-स्वीकार किया करते हैं। साध्वी जी ने बताया कि मन को सुन्दर और निर्विकार बनाकर परम शुद्ध बना देने की दिव्य औषधि परम गुरू के पास ही होती है। शास्त्र-सम्मत पावन ‘ब्रह्मज्ञान’ को प्रदान कर पूर्ण गुरू मानव मन को वास्तविक सुमन, अर्थात सुन्दर मन के रूप में परिवर्तित कर देने की अद्वितीय सामर्थ्य रखते हैं। जब भक्तात्मा अपने सद्गुरू के साथ अपना अनन्य दिव्य संबंध जोड़ लेती है तब गुरूदेव उसके जीवन की समस्त कठिनाईयों, परेशानियों और अध्यात्म मार्ग के समस्त अवरोधों को अपने हाथों में लेकर उसे संसार सागर से तार देते हैं, उसे ईश्वरीय साम्राज्य का अधिकारी बना देते हैं। जीव की जब समस्त चित्त वृत्तियां गुरूमुख हो जाती हैं अर्थात सद्गुरूदेव से ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति के उपरान्त शिष्य की एकाग्रता उच्चतम शिखर की ओर गुरूकृपा से अग्रसर होने लगती हैं और वह निरन्तर एकाग्रचित्त होकर ध्यान-साधना-सुमिरन करने लगता है, दत्तचित्त होकर गुरू की सेवा में व्यस्त हो जाता है, शांतचित्त होकर नियम पूर्वक सत्संग श्रवण किया करता है और प्रसन्नचित्त होकर गुरू का पल-प्रतिपल ध्यान (पावन स्वरूप को नेत्रों में बसाकर) करता है तब जन्मों-जन्मों से प्रभु मिलन की उसकी प्यासी आत्मा को पूर्ण शांति प्राप्त हो जाती है, वह अपने मूल परमात्मा में समाहित होकर स्वयं भी परमात्म स्वरूप ही हो जाता है। गुरू शिष्य की समस्त मलिनता को अपने करूणामयी ज्ञान से धो डालते हैं। जैसे एक नाले का गंदा पानी जब किसी नदी के सम्पर्क में आता है तो वह नदी की भांति ही स्वच्छ और निर्मल हो जाता है यही पूर्ण सद्गुरूदेव अपने शिष्य के साथ भी करते हैं। देवयोनि महान हो सकती है लेकिन! मनुष्य योनि तो दुलर्भ योनि है, ईश्वर की भक्ति और प्राप्ति मात्र इसी योनि में सम्भव है।
तत्पश्चात! सद्गुरूदेव श्री आशुतोष महाराज जी की शिष्या तथा देहरादून आश्रम की प्रचारिका साध्वी विदुषी सुभाषा भारती जी ने आज का सत्संग प्रस्तुत करते हुए बताया कि गुरू दरबार की सेवा सहज़ नहीं मिलती है, पूर्ण गुरू का दरबार ‘बैकुण्ठ’ की नाईं हुआ करता है और बैकुण्ठ में केवल पवित्रात्माएं ही आ पाती हैं, गुरू से पावन ज्ञान प्राप्त कर पाती हैं, गुरू की निष्काम सेवा कर पाती हैं। पूर्ण सद्गुरू अपने शरणागतों पर ‘अहैतुकी’ कृपा किया करते हैं। अहैतुकी अर्थात जो बिना किसी हेतु के की जाती है उसे ही अहैतुकी कृपा कहते हैं। सृष्टि में इस कृपा के प्रदाता केवल सद्गुरूदेव हुआ करते हैं। देवाधिदेव भगवान शिव को प्रणाम करते देख माता पार्वती जी ने जब उनसे पूछा कि प्रभु सारा जगत, सारे लोग, दिग-दिगान्तर तो आपके चरणों में प्रणाम कर स्वयं को कृतार्थ किया करते हैं, फिर! आप किसे प्रणाम करते हैं? तब भगवान भोलेनाथ आशुतोष जी बोले, हे देवी! मैं सृष्टि की उस सर्वोच्च सत्ता को जो कि पूर्ण है, अमल है, कृपा वत्सल है, अपार करूणा सिन्धु है मैं! उन परम गुरू को सदा ध्याता भी हूं और उनके चरण कमलों में नित्य प्रणाम भी किया करता हूं। साध्वी जी ने कहा कि सद्गुरू की महिमा अपरम्पार है, शास्त्र कहता है- ‘कर्ता करे न कर सके, गुरू करे सो होय, तीन लोक नवखण्ड में गुरू से बड़ा न कोय।’ सत्संग के बीच में साध्वी जी ने इस मधुर भजन की मर्मस्पर्शी व्याख्या कर संगत को भाव-विभोर कर दिया। ‘‘सारे तीरथ, सारे धाम आपके चरणों में, हे गुरूदेव प्रणाम आपके चरणों में।’’ एक शिष्य अपने सद्गुरूदेव के श्रीचरणों में अपना तन-मन-प्राण अर्पित कर देता है क्योंकि जन्मों-जन्मों से भटकते हुए शिष्य को अपना लक्ष्य वह परमात्मा श्री सद्गुरू के ही चरणों की शरणागत होने के उपरान्त प्राप्त हो पाता है। एैसे ही परम गुरू के सम्बन्ध में कबीर साहब कितना सुन्दर कहते हैं- ‘‘गुरू गोबिन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पाय, बलिहारी गुरू आपने जिन गोबिन्द दियो मिलाए।’’ गुरू शिष्य को एैसी भक्ति प्रदान करते हैं जो अद्वितीय और अतुलनीय हुआ करती है। चलते-फिरते, उठते-बैठते, खाते-पीते और यहां तक कि अपनी नींद को भी ‘योगनिद्रा’ बनाकर इस भक्ति को किया जा सकता है। पूर्ण गुरू एक एैसे पारस की नाईं हैं जो केवल लौह सदृश शिष्य को ही कंचन (स्वर्ण) में परिवर्तित कर दिया करते हैं, यह सौभाग्य उस चांदी को भी प्राप्त नहीं है चाहे वह पारस के साथ ही क्यों न जुड़ी हुई हो। गुरू शिष्य को एक अजपा जप प्रदान करते हैं जो कहीं भी न तो लिखने में, न पढ़ने में, न बोलने में या फिर कहीं सुनने में ही आता है। कहा भी गया- ‘सद्गुरू एैसा कीजिए, पड़े निशाने चोट, सुमिरन एैसा कीजिए जीभ हिले न होंठ।’
आज आश्रम परिसर में गुरू का लंगर चलाया गया, श्रद्धालुओं ने भण्डारे का प्रसाद ग्रहण किया।