#जंगल मे अशिक्षा थी।#

जानवरों ने शिक्षा का महत्व समझ लिया, और स्कूल खोल दिया। मिलजुलकर सिलेबस तय हुआ। समानता लायी जाएगी, सबको सब कुछ सिखाया जायेगा।

तो सबको सब कुछ सिखाया गया, एग्जाम हुए।
रिजल्ट आया।
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मछली तैरने में फुल मार्क्स, उड़ने दौड़ने में फेल हो गयी। पक्षी उड़ने में पास हुए, मगर तमाम कोचिंग ट्यूशन के बावजूद तैर न सके।

कोयल गायन में फर्स्ट क्लास रही, और कुत्ते फेल हो गए।

अब कुत्तों में बड़ा असंतोष फैला। वे अगले सत्र में भौकने को सिलेबस में रखने की मांग करने लगे। सबको बताया-

“भौंकना मौलिक अधिकार है। हमारी स्वतंत्रता है। फंडामेंटल डॉगी राइट है”

बिन भौकन सब सून..

क्या अब एक कुत्ता अपने ही जंगल मे भौंक भी नही सकता ??

आंदोलन फैल गया।
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बड़ा समर्थन मिला।

भौकना उत्तम कर्म होता है।
न कोई सुर, न ताल, न तुक, न राग, न द्वेष।
ना नियम की सीमा हो,
न छंद का हो बंधन …

जंगल में दर्जन भर कोयल हैं। उनको जब गाने का स्पेशल राइट मिला, तो क्या यह कोयलों का तुष्टिकरण करण नही था।

भला उन्हें भौंकने की जिम्मेदारी क्यो नही दी गई।

बताओ, बताओ.. ऐसे कैसे??
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याने ऐसा चौक चौराहों, भजन पूजन के पंडालों में फुसफुसाकर बताया गया। कानाफूसी चहुं ओर फैल गयी।

फिर टीआरपी के चक्कर मे टीवी कूदा। मीडिया में बैठे श्वानों की विभिन्न प्रजातियां भी दम खम से अपने स्पीशीज का साथ देने लगे।

जो साथ न थे..
उन पर कुत्तों ने हमला करके भगा दिया।

अब तो कुत्ता टाइम्स, कुत्ता न्यूज, श्वान तक, और Doggy Now पर बैठे कुत्तन-कुत्तनियाँ दिन रात भौकने की महिमा का गान करते,

और बुलाकर हर जानवर से पूछते- तुम वह आखिर भौकने के खिलाफ क्यूँ है? तुम्हे कुत्तों से इतनी नफरत क्यूं है..

आखिर क्यूँ? क्यूँ? क्यूँ?
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कई बार स्टूडियो में कुत्ते ही भेड़, बकरी, मछली, मुर्गा, हिरन का भेष बनाकर आते। चैनल उन्हें स्वतंत्र विश्लेषक बताता, और खूब भौंकवाता।

अथक मेहनत से आखिरकार पूरा जंगल कन्विंस हो गया। कुत्तों की सरकार बन गयी।

सभी प्रमुख पदों पर कुत्ते आरूढ़ हुए। मने यूँ समझो कि कुत्ता ही वीसी हुआ, कुत्ता ही प्रिंसिपल, कुत्ता शिक्षक हुआ..

और चौकीदार तो कुत्ता था ही।
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तो इस प्रकार सम्पूर्ण विद्यालय में कुत्तों का वर्चस्व हुआ। अब पहले मौके में सम्विधान संशोधन करके सिलेबस बदल दिया गया।

नये सिलेबस में भौकना अनिवार्य तथा एकमात्र विषय था। सभी जानवर अपनी बोली छोड़ भौंक रहे थे। मगर क्या ही खाकर कुत्तों से बेहतर भौकते।
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अब विद्यालय में भौंकश्री, भौकभूषन, भौकरत्न के पुरस्कार बंटते है।

और आश्चर्य की बात की कभी कभी मछली, पक्षी और घोड़े भी इनाम जीत जाते है, या जितवा दिये जाते हैं। इससे कुत्तों की निष्पक्षता पर यकीन बना रहता है।
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तो सिलेबस बदलने से बड़ा फर्क पड़ता है।

हमारे देश मे भी स्कूली दिनों में विज्ञान, गणित, एंटायर पोलिटिकल साइंस की किताब में छुपाकर..

मस्तराम, गुलशन नंदा और वेद प्रकाश शर्मा को पढ़ने वालो ने..

सुना है उन्हें सिलेबस ही बना दिया है।